अल्बर्ट आइंस्टाइन जिनकी थ्योरीज़ ने
दुनिया की साइंस को हमेशा हमेशा के लिए
बदल दिया। उनकी जिंदगी में एक वक्त ऐसा भी
आया था जब वो 9 सालों तक नौकरी के लिए
दर-दर भटक रहे थे। यहां तक कि उनके क्लास
फेलोस में अगर किसी की जॉब नहीं लगी थी तो
वो सिर्फ आइंस्टाइन ही थे। लेकिन किसने
सोचा था जो लड़का स्कूल में सबसे स्लो
लर्नर समझा जाता था। एक दिन उसके दरवाजे
पर इजराइल के प्रेसिडेंट बनने की ऑफर
आएगी। आइंस्टाइन ने इस इजरायली एंबेसडर को
क्या जवाब दिया और वो क्या वजूहात थी
जिनकी वजह से इतने इंटेलिजेंट शख्स को कोई
जॉब पर रखने को तैयार नहीं था।
अल्बर्ट आइंस्टाइन 1879 में जर्मनी
के शहर उल्म में पैदा हुए। बचपन में ही
उनको अजीब नजरों से देखा जाता था क्योंकि
वह दूसरे बच्चों की तरह नहीं थे। वह बहुत
स्लो लर्नर थे। लेट बोलना शुरू किया और
स्कूल में टीचर्स उनको एवरेज या कमजोर
स्टूडेंट समझते थे। पर इसके पीछे वजह यह
थी कि आइंस्टाइन हर चीज को क्यूरोसिटी की
निगाह से देखते थे। स्कूल में अगर उनको
कोई चीज समझ नहीं आती थी तो रट्टा लगाकर
उसे याद करने के बजाय वह उसके कांसेप्ट्स
को समझने की कोशिश करने में लग जाते थे।
जिसकी वजह से वह हमेशा कोर्स में पीछे रह
जाते थे। आइंस्टाइन बचपन से ही काफी
क्रिएटिव थे और यही उनकी कमजोरी भी थी और
बाद में उनकी ताकत भी बनी। आइंस्टाइन की
अर्ली एजुकेशन म्यनिक में हुई। जहां उनको
जर्मन स्कूलिंग का स्ट्रिक्ट डिसिप्लिन
बेस्ड सिस्टम बिल्कुल पसंद नहीं था। एक
वक्त आया जब तंग आकर आइंस्टाइन ने स्कूल
छोड़ दिया और अपनी फैमिली के साथ
स्विट्जरलैंड शिफ्ट हो गए ताकि वहां के
लिबरल एजुकेशन सिस्टम में अपनी जगह बना
सकें। वो वहां के जरिक पॉलिटेक्निक कॉलेज
में फिजिक्स और मैथमेटिक्स में एडमिशन
लेना चाहते थे। एंट्रेंस एग्जामिनेशन में
उन्होंने मैथ्स और फिजिक्स के पेपर को
फौरन सॉल्व कर लिया। लेकिन दूसरे
सब्जेक्ट्स जैसा कि जियोलॉजी, लिटरेचर और
पॉलिटिक्स में वह बुरी तरह फेल हुए।
एंट्रेंस एग्जाम के बाद कॉलेज के प्रोफेसर
ने आइंस्टाइन को अपने ऑफिस में बुलाया। वो
आइंस्टाइन के मैथ्स और फिजिक्स के जवाबात
देखकर काफी हैरान थे। वह जानना चाहते थे
कि आइंस्टाइन को यह सब किसने पढ़ाया है।
जिस पर आइंस्टाइन ने जवाब दिया कि
उन्होंने यह सब खुद से पढ़ा है। पर दूसरे
सब्जेक्ट्स जिनमें ज्यादातर सिर्फ रट्टा
काम करता था उनमें आइंस्टाइन बुरी तरह फेल
हुए थे। प्रोफेसर ने उनको बताया कि अगर
उनको इस कॉलेज में एडमिशन चाहिए तो सिर्फ
मैथमेटिक्स और फिजिक्स काम नहीं करेगी।
उनको दूसरे सब्जेक्ट्स की तैयारी करने के
लिए वापस एक साल स्कूल में लगाना होगा।
मायूस होकर आइंस्टाइन को वापस एक साल
स्कूल में लगाना पड़ा और अगले साल
खुशकिस्मती से वो जरिक पॉलिटेक्निक कॉलेज
के एंट्रेंस एग्जाम में पास हो गए। पर
कॉलेज में एडमिशन लेने से आइंस्टाइन की
नेचर नहीं बदली। यहां पर भी वो बोरिंग
लेक्चर्स को स्किप करते, खुद से पढ़ाई
करते और प्रोफेसर से ज्यादा इंप्रेस नहीं
होते थे। यानी उनके आगे पीछे घूमना
आइंस्टाइन की फितरत नहीं थी। इस सब का
रिजल्ट यह निकला कि जब आइंस्टाइन 1900 में
ग्रेजुएट हुए तो उनके प्रोफेसर्स ने उनको
जॉब रिकमेंडेशन देने से इंकार कर दिया। अब
बेशक वो ज्यादा जहीन थे लेकिन आइंस्टाइन
के पास कोई स्ट्रांग रेफरेंस नहीं था। कोई
मेंटर नहीं था जो उनको एक एकेडमिक या
रिसर्च जॉब दिला सके। उस दौर में साइंस की
फील्ड में जॉब पाने के लिए प्रोफेसर की
रिकमेंडेशन बहुत इंपॉर्टेंट होती थी और
आइंस्टाइन उस रेस में पीछे रह गए और
रिजल्ट यह निकला कि उनके क्लासमेट्स जिनसे
वो एकेडमिकली स्ट्रांग थे अच्छी पोजीशंस
पर पहुंच गए क्योंकि उनके पास प्रोफेसर का
सपोर्ट था। आइंस्टाइन ने जर्मनी और
स्विट्जरलैंड में कई जगह अप्लाई किया।
यूनिवर्सिटीज, स्कूल्स, रिसर्च
इंस्टट्यूट्स हर जगह उनको मना हो गया।
लेटर्स लिखे प्रोफेसर से मिले लेकिन सब
जगह एक ही जवाब। हमें अफसोस है हम आपको
हायर नहीं कर सकते। आइंस्टाइन के लिए यह
पर्सनली भी पेनफुल था क्योंकि वह समझते थे
कि उनका काम और पोटेंशियल लोगों को दिखाई
नहीं दे रहा। आइंस्टाइन के लेटर्स और
डायरी से उनकी इस फ्रस्ट्रेशन का अच्छी
तरह अंदाजा लगाया जाता है। आइंस्टाइन ने
एक दफा अपनी डायरी में लिखा था, 'यह लगता
है जैसे दुनिया को मेरी कोई जरूरत ही
नहीं। हर दरवाजा बंद लगता है। अपनी फैमिली
को लिखे गए लेटर में यह मेंशन था, मैं हर
जगह अप्लाई करता हूं, लेकिन ना तो जवाब
मिलता है, ना ही किसी को मेरी जरूरत है।
लगता है मेरी जिंदगी में कुछ भी ठीक नहीं
जा रहा। एक और फेमस लेटर जो उन्होंने अपनी
गर्लफ्रेंड मिलीवा को लिखा, उसमें
आइंस्टाइन ने कहा, 'मुझे लगता है मैं एक
यूज़लेस इंसान बन गया हूं। मैं सिर्फ
फिजिक्स में जीता हूं। पर दुनिया सिर्फ उन
लोगों की सुनती है जो उनके सिस्टम में फिट
बैठते हैं। यह फ्रस्ट्रेशन आइंस्टाइन की
पर्सनल लाइफ को असर अंदाज कर रही थी। पैसे
की तंगी, शादी में टेंशंस और खुद से
डिसटिस्फेक्शन। एक और प्रॉब्लम यह थी कि
आइंस्टाइन की नेचर बहुत ज्यादा
आइडियलिस्टिक थी। वो क्लियर थे कि वो
सिर्फ साइंस से रिलेटेड ही जॉब करेंगे।
प्रैक्टिकल या कमर्शियल जॉब्स में उनका
कोई इंटरेस्ट नहीं था। उस वक्त आइंस्टाइन
का अफेयर उनकी एक क्लास फेलो मिलीवा के
साथ चल रहा था। लेकिन दोनों की शादी सिर्फ
इस वजह से नहीं हो रही थी क्योंकि
आइंस्टाइन के पास कोई जॉब नहीं थी।
फाइनेंशियल प्रेशर बढ़ रहा था। मिलीवा
एक्सपेक्ट कर रही थी कि आइंस्टाइन कुछ
कमाए लेकिन आइंस्टाइन के हाथ जैसे जकड़े
हुए थे। एक वक्त आया जब आइंस्टाइन को
प्राइवेट ट्यूटर बनकर पैसे कमाने पड़े।
जहां वह स्कूल स्टूडेंट्स को मैथ्स और
फिजिक्स पढ़ाते थे। आखिरकार आइंस्टाइन के
एक दोस्त ने उनको एडवाइस दिया कि बैरन
पेटेंट ऑफिस में एक एग्जामिनर की जॉब के
लिए अप्लाई करो। यह एक लो लेवल गवर्नमेंट
जॉब थी, लेकिन कम से कम एक स्टार्ट था।
आइंस्टाइन ने अप्लाई किया और
सरप्राइजिंगली बिना ज्यादा एक्सपीरियंस के
उनको 1902 में जॉब मिल गई। बैरन पेटेंट
ऑफिस में आइंस्टाइन का काम था नए
इन्वेंशंस और पेटेंट्स की एप्लीकेशनेशंस
को चेक करना। देखना क्या सच में इनोवेटिव
है क्या नहीं। यह जॉब बोरिंग थी लेकिन
आइंस्टाइन के लिए डूबते को तिके का सहारा
बनने का काम कर रही थी। क्योंकि यह जॉब 9
टू फाइव थी तो वह रातों को और वीकेंड्स
में अपनी साइंटिफिक रिसर्च करते रहे। बेशक
यह प्रोफेसर की जॉब नहीं थी जिसके लिए
आइंस्टाइन कोशिश कर रहे थे। लेकिन जो भी
था ना होने से अच्छा ही था। उसके बाद एक
वक्त ऐसा आया जब आइंस्टाइन के दिन पलटने
लगे। पेटेंट ऑफिस में काम करते हुए
आइंस्टाइन ने 1905 में अपने करियर का सबसे
बड़ा धमाका किया। एक ही साल में उन्होंने
चार रेवोल्यूशनरी पेपर्स पब्लिश किए।
जिनमें स्पेशल रिलेटिविटी फोटोइिक इफेक्ट,
ब्राउनियन मोशन और मास एनर्जी इक्विवेलेंस
जिसे e = एमसी स्क्वायर भी कहा जाता है।
शामिल थे। इन पेपर्स ने उस वक्त की
साइंटिफिक दुनिया को हिला कर रख दिया।
अचानक पेटेंट ऑफिस में मामूली सी जॉब करने
वाला नाम यूरोप के साइंसदानों में मशहूर
होने लगा। आइंस्टाइन का एक पेपर फोटोइिक
इफेक्ट क्वांटम फिजिक्स की बुनियाद बना और
दूसरे स्पेशल रिलेटिविटी ने समय और स्पेस
की समझ को बदल कर रख दिया। 1900 में पास
आउट होने के बाद आखिरकार 1909 में यानी
ग्रेजुएशन के 9 सालों के बाद उनको
यूनिवर्सिटी ऑफ जरिक में असिस्टेंट
प्रोफेसर बनने की जॉब ऑफर मिली। अल्बर्ट
आइंस्टाइन की शख्सियत को लोगों ने कभी
पूरी तरह नहीं समझा। साइंस की दुनिया से
बाहर जो आइंस्टाइन था उनकी इमेज बहुत
कंफ्यूजिंग रही है। एक तरफ लोग उनको एक
मजाकिया तरीके से दिखाते हैं। बिखरे हुए
बालों वाला अजीब सा सोशली ऑकवर्ड
साइंटिस्ट जो सिर्फ अपनी किताबों और
थ्योरीज में घुसा रहता था। दूसरी तरफ वो
एक सीरियस और इंपॉर्टेंट पॉलिटिकल रोल में
भी दिखाई देते हैं। 1932 में आइंस्टाइनज
र्मनी से भाग गए। बस एक साल पहले जब हिटलर ने वहां पावर संभाली क्योंकि हिटलर जसके काफी खिलाफ था और आइंस्टाइन का
ताल्लुक भी एक जइश खानदान से ही था।
आइंस्टाइन अमेरिका चले गए और प्रिंस्टन
न्यू जर्सी में थ्योरेटिकल फिजिक्स के
प्रोफेसर बन गए। वो सिर्फ साइंस के हीरो
ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की जइश
कम्युनिटी का एक फेमस और रिस्पेक्टेड
चेहरा भी थे। इस दौरान जस की अपनी स्टेट
इजराइल के बनने का अमल चल रहा था और
पेलेस्टाइन में इसी मुद्दे को लेकर काफी
जंग हो रही थी। आखिरकार 1948 में इजराइल
फॉर्मली वजूद में आ गया। लेकिन सिर्फ 4
सालों के बाद 1952 में इजराइल के पहले
प्रेसिडेंट खम वाइज़मैन इंतकाल कर गए। अब
जुइश कम्युनिटी के सर पर कोई लीडर नहीं
था। तो उस वक्त जायनिस्ट लीडर्स ने सोचा
कि क्यों ना अल्बर्ट आइंस्टाइन को अगला
प्रेसिडेंट बनाया जाए। आखिरकार वो एक
जानेमाने फिजिसिस्ट भी थे और समाज में
इनकी इज्जत भी थी। मतलब वह एक साइंटिस्ट
ही नहीं एक पॉलिटिकल और कल्चरल आइकॉन भी
बन चुके थे। 17th नवंबर 1952 को आइंस्टाइन
को एक लेटर मिला। यह लेटर भेजा था अब्बा
एबन ने जो उस वक्त यूनाइटेड नेशंस में
इजराइल का एंबेसडर था। लेटर में लिखा था
इस लेटर के जरिए आपको प्राइम मिनिस्टर बेन
गोरियो का पैगाम पहुंचाया जा रहा है कि
अगर इजराइली पार्लियामेंट आपको वोट देकर
इजराइल का प्रेसिडेंट बनाए तो क्या आप यह
ऑफर कबूल करेंगे? अगर आप मान जाते हैं तो
आपको इजराइल शिफ्ट होना पड़ेगा और वहां की
सिटीजनशिप लेनी होगी। प्राइम मिनिस्टर की
तरफ से यकीन दिलाया जाता है कि ऐसी सूरत
में आपको अपना साइंटिफिक काम पूरी आजादी
और सहूलत के साथ कंटिन्यू करने दिया
जाएगा। यह बहुत बड़ा और इमोशनल ऑफर था। पर
आइंस्टाइन के प्लांस कुछ और ही थे।
उन्होंने पलट कर जो जवाब दिया वह उनकी
जिंदगी का एक और पहलू सामने लाता है।
आइंस्टाइन ने जवाब में लिखा मुझे इजराइल
की तरफ से प्रेसिडेंट बनाने का जो ऑफर
दिया गया है उससे मैं बहुत ज्यादा इमोशनल
हूं। लेकिन साथ ही उदास और शर्मिंदा भी
हूं कि मैं इसे कबूल नहीं कर सकता। मैं
जिंदगी भर सिर्फ ऑब्जेक्टिव चीजों से डील
करता आया हूं। इसीलिए मेरे पास ना तो
लोगों को संभालने की फितरत है और ना ही
ऑफिशियल जिम्मेदारियां निभाने का तजुर्बा।
मतलब आइंस्टाइन ने खुद को पॉलिटिकल
लीडरशिप के लायक नहीं समझा था। उस वक्त
आइंस्टाइन की एज 73 इयर्स थी। जब उनको यह
ऑफर मिला तो उन्होंने अपने घर में रुके
हुए एक मेहमान को बताया था कि यह ऑफर बहुत
ऑकवर्ड है। बाद में उन्होंने एक जेरूजम के
अखबार को जो उनके लिए कैंपेन कर रहा था यह
भी समझाया कि मैं ऐसे किसी चांस का सामना
नहीं करना चाहता जहां मुझे गवर्नमेंट के
फैसलों के साथ चलना पड़े जो कभी मेरे जमीर
के खिलाफ जा सकती हो। मतलब आइंस्टाइन
सिर्फ इसलिए मना नहीं कर रहे थे कि वह
पॉलिटिकली फिट नहीं थे। बल्कि इसलिए भी कि
वह अपनी जिंदगी में कभी भी अपने जमीर के
खिलाफ नहीं जाना चाहते थे। फिर चाहे कितनी
भी बड़ी कुर्सी या इज्जत क्यों ना मिले।
लोग जो जज्बाती तौर पर एक्साइटेड हो रहे
थे आइंस्टाइन को प्रेसिडेंट बनाने के
आईडिया पर वो एक इंपॉर्टेंट बात भूल रहे
थे कि आइंस्टाइन इजराइल के लिए सिंपैथेटिक
जरूर थे। लेकिन वह कभी भी एक पैशनेट
जायनिस्ट नहीं थे। जब आइंस्टाइन ने
प्रेसिडेंट के ऑफर को ठुकरा दिया तो
फॉर्मर प्राइम मिनिस्टर बेन कुरियो ने
अपने असिस्टेंट को कहा कि अगर आइंस्टाइन
ने यह ऑफर एक्सेप्ट कर लिया होता तो हमारे
लिए बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाती। क्योंकि
1946 में इजराइल बनने से 2 साल पहले
आइंस्टाइन ने एक इंटरनेशनल कम्युनिटी के
सामने कहा था कि स्टेट का आईडिया मेरे दिल
में नहीं है। यानी असल में आइंस्टाइन
इजराइल को अलग स्टेट में नहीं देखना चाहते
थे। आखिरकार 16th दिसंबर 1952 को यटजाक
बेंज़वी इजराइल के दूसरे प्रेसिडेंट बन
गए।
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