गोल्डन पीरियड था जिसके साथ हमारी खूब
यादें जुड़ी हुई हैं यह वो दौर था जब पैसा
कम खुशियां ज्यादा हुआ करती थी साधन कम
लेकिन समाधान ज्यादा हुआ करते थे रिश्तों
में खटास कम मिठास ज्यादा हुआ करती थी
पैरों में भले चप्पल नहीं थी लेकिन चेहरे
पर मुस्कुराहट ज्यादा हुआ करती थी घर में
भले ही पिता की एक पुरानी साइकिल हो लेकिन
बच्चों के दिल में उसे चलाने की चाहत
ज्यादा हुआ करती थी कहते हैं कि गुजरात
जमान लौट कर नहीं आता लेकिन हम कुछ पलों
के लिए समय में पीछे जाकर उस जमाने की
यादों को जरूर जी सकते हैं और हम आपको ले चलेंगे 90 के दशक के उस दौर में जिसे देख आपके बचपन की यादें ताजा हो जाएंगी आंखों में खुशी के
आंसू भर जाएंगे और दिल कहेगा वो दिन भी
क्या दिन थे तो चलिए चलते हैं इस सुहाने
सफर पर आपको याद है उस वक्त मां ईंट और
मिट्टी से बने चूल्हे पर आग जलाकर खाना
बनाया करती थी और शाम होते ही बच्चे खाने
का इंतजार करते हुए मां के साथ आंगन में
बैठ जाते चूल्हा जलाने के लिए खेत से पतली
सूखी लड़क यां तोड़कर लाई जाती थी और
जिसके घर में गाय भैंस हुआ करती थी वह
उनके गोबर के उपले या थपड़ी बनाकर उन्हें
सुखाते थे फिर चूल्हा जलाने के लिए उनका
इस्तेमाल होता था और जिसके घर गाय भैंस
नहीं होती थी वह पड़ोस से या माकेट से ₹1
के दो दर्जन गोबर के उपले खरीद कर लाते थे
फिर मां फूंक-फूंक कर चूल्हा जलाने की
कोशिश करती थी और जब व जल जाता था तो
बच्चों की खुशी का ठिकाना ही नहीं रहता था
वहीं जब सब्जी मंडी जाने का मौका मिलता था
तो वहां दुकानदारों को कोयले से जलने वाले
चूल्हे पर पकौड़े समोसे और कचौड़ी बनाते
देख मुंह में पानी आ जाता था और सामान के
लिए मिले पैसों से कुछ पैसे बचा के हम
नाश्ता खाने में खुद को रोक नहीं पाते थे
उस समय ना वाशिंग मशीन होती थी ना
ज्यादातर घरों में पानी केनल तभी घर की
बेटियां कुएं से पालटी भर के पानी ले आती
और थापी से पीट-पीट कर कपड़े धोया करती थी
जबकि कुछ लोग कपड़े लेकर नदी के किनारे
बने घाटों में चले जाते थे और वहीं कपड़े
धोकर नहा भी लेते थे आजकल तो लगभग सभी के
पास पक्के मकान हैं लेकिन उस दौर में गांव
में सिर्फ एक आधा लोगों के पास ही पक्के
के मकान हुआ करते थे बाकी गांव के पास
मिट्टी से बने हुए कच्चे घर हुआ करते थे
और आपको बता दूं कि जब दीपावली का त्यौहार
आता था तो लोग अपने इन्हीं घरों कि मिट्टी
और गाय के गोबर से लीपापोती किया करते और
इसे काफी शुभ माना जाता लोगों के घरों की
दीवारें आला या ताक कहे जाने वाले ऐसे
स्थान जरूर दिख जाते थे जहां छोटी चीजें
बहुत रखी जाती थी घर की चाबियां और शाम को
जलाने वाले दिए इसी पर रखे जाते थे लेकिन
अब नए घरों में इनकी जगह ड्रेसिंग टेबल या
डिजाइनर अलमारियों ने ले ली है तस्वीरों
में दिख रही ये चिड़िया उन दिनों खूब दिखा
करती थी लेकिन आज यह विलुप्त होने की कगार
पर पहुंच गई है आपने इस चिड़िया को आखिरी
बार कब देखा था और इसकी मधुर ध्वनि का
दीदार किया था कमेंट में बताइए याद है रोज
शाम होते ही सभी दोस्त गली के नुक्कड़ पर
मिला करते थे और खूब हंसी मजाक किया करते
थे इसे लेकर किसी ने क्या खूब कहा है कि
उस दौर में सहजता थी सादगी थी बंदगी थी यह
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स नहीं थे तब
जिंदगी बच्चे में एक दूसरे के साथ कई
मजेदार खेल खेलने की होड़ थी जैसे कि राजा
मंत्री चोर सिपाही चिड़िया ड़ छुपन छुपाई
इक्कल उकल गिट्ट अंताक्षरी
कच्चे पकड़म पकड़ाई गिट्टी फोड़ आंख में
चौली लंगड़ी टांग गिल्ली डंडा वगैरह खैर
इनमें से बचपन में कौन सा खेल सबसे ज्यादा
आपने खेला है कमेंट्स में बताइए और अगर
बचपन में आपने यह खेल नहीं खेले तो आपने
90 के बचपन का एक सुनहरा दौर मिस किया है
वहीं यह माचिस की ताश देखकर आप में से कुछ
लोगों की आंखें भर आएंगे यह ताश वही बच्चे
बनाते थे जिनके पास ताश की गड्डी खरीदने
के पैसे नहीं होते थे लेकिन अपने रूल्स के
साथ अपनी ताज खेलने का मजा ही कुछ और था
याद है वह स्वादिष्ट कैंडी जो 90 के दशक
की शान हुआ करती थी गुरु चेला जिसमें
कैंडी का पैकेट घुमाने पर फोटो बदल जाती
थी पान पसंद मैंगो बाइट चटपटी कैंडीज
इलिया किस्मी इमली की गोली खाने वाली
सिगरेट जेम्स आम पापड़ कप में मिलने वाली
स्वादिष्ट जेली और मिल्की बार यह कुछ ऐसी
कैंडीज थी जो पूरे भारत में जोरों शोरों
से बिका करती थी खैर इनमें से आपकी
पसंदीदा कौन सी थी कमेंट्स में बताइए ये
वो गलियां है जहां हम क्रिकेट खेलते वक्त
जीवन की सभी समस्याएं भूल जाते थे बच्चे
बारिश के पानी में छपाक छपाक करके दौड़ते
थे और अगर एक पुराना टायर मिल जाए तो छोटी
सी लकड़ी की मदद से टायर को धकेल हुए रेस
लगाने का मजा ही अलग था ये वही मोहल्ले
हैं जिनके साथ हमारी सैकड़ों यादें जुड़ी
हुई हैं ये वही पेड़ है जहां देश के लाखों
बच्चों को प्राथमिक शिक्षा मिली है और जिन
बच्चों को स्कूल जाने का सौभाग्य प्राप्त
होता था वो महंगी बेंच नहीं बल्कि ऐसी
लकड़ी की चारपाई पर बैठकर पढ़ते थे जब
पहली बार बंगाल में इंग्लिश स्पीकिंग
क्लास खुली थी तब ऐसे दीवारों पर
एडवर्टाइजमेंट दी गई थी लेकिन आजकल तो
अंग्रेजी के सामने हिंदी भी फीकी पड़ने
लगी है अब नजर नहीं आते ये डाकिया जिनकी
साइकिल की घंटी सुनते ही घर में खुशियों
की लहर दौड़ उठती थी पोस्ट ऑफिस तो आज भी
है लेकिन खत लिखने वाला कोई नहीं याद है
गांव से शहर गए लोग जब परिवार को एसटीडी
पीसीओ पर फोन किया करते थे तो पूरे गांव
में खुशहाली फैल जाती थी प्रेमी प्रेमिका
तय किए गए समय पर स्टेडी बूथ के पास बैठकर
एक दूसरे को फोन लगाने की राह देखते थे और
सिक्के खतना इसलिए बात करने से ज्यादा
ध्यान सेकंड्स पर होता था लेकिन याद मजा
बहुत आता था यह वो दौर था जब कांच की बोतल
में तेल और रस्सी डालकर घंटों तक जलने
वाली चीमनी बनाई जाती थी और रात को लाइट
जाने पर इसे जलाकर घर वालों के साथ खाना
खाया जाता था याद है उस वक्त हमारी दादी
नानी सिलबट्टे और मूसल में सब्जियों को
पीसकर स्वादिष्ट चटनी बनाया करती थी आटा
पीसने के लिए घर पर ही दो पत्थर वाली घटी
यानी चक्की का इस्तेमाल किया जाता था कुछ
के घरों में मिट्टी के बर्तनों में खाना
बनाया जाता था और खाने की हर बाइट में आने
वाली मिट्टी की खुशबू मन को प्रफुल्लित कर
देती थी बर्तन भी स्टील के नहीं थे बल्कि
लोहे तांबे पित्तल और कांसे के हुआ करते
थे और डाइनिंग टेबल की जगह जमीन पर बैठकर
हाथ से खाने खाने का मजा ही कुछ और था
चलिए अब हमारे प्यारे राजस्थान में और 90
के दौर की कुछ ऐसी यादों को ताजा करते हैं
जिनके बारे में शायद आजकल के बच्चे को पता
तक नहीं होगा तो उस वक्त राजस्थान के गांव
में कई लोक नृत्य करने वाले समूह आया करते
थे जिनमें कुछ लोग स्वदेश में बने म्यूजिक
इंस्ट्रूमेंट्स बजाया करते थे और कुछ उस
मधुर धुन पर नृत्य करके गांव के बच्चे
बूढ़ों का दिल मोह लिया करते थे गांव
शहरों में कठपुतली का खेल भी होता था
जिसमें कलाकार लकड़ी से बने गुड्डी
गुड़ियां नचा करर खूबसूरत कला का प्रदर्शन
करते थे लेकिन समय के साथ य कला ठंडे
बस्ते में चली गई मोबाइल फोन और वीडियो
गेम्स के जमाने में बच्चे असल मनोरंजन भी
भूल गए और जिन कलाकारों को कठपुतली का खेल
देखने में दर्जनों लोगों की भीड़ जमा होती
थी उनकी आज कुछ दर्शकों के लिए भी आंखें
तरस गई याद है उस वक्त ट्रांसपोर्ट के लिए
ज्यादा वाहन नहीं हुआ करते थे इसलिए कई
लोग बैलगाड़ी और ऊंट गाड़ी से सामान को
यहां से वहां पहुंचाने का काम करते थे और
रोजी रोटी देने वाले जानवर की देखभाल अपने
बच्चों की तरह करते थे 90 के दशक के के
गोल्डन टाइम की बात करें तो ट्रेन का
जिक्र ना हो ऐसा तो हो ही नहीं सकता उस
वक्त सिर्फ कुछ लोग जहाज में सफर कर सकते
थे इसलिए देश की
99.99% जनता के लिए दूर सफर करने के लिए
ट्रेन सबसे पसंदीदा साधन हुआ करती थी एसी
वाले डब्बे तो नहीं थे लेकिन मन में सफर
करने की चाहत जरूर थी जो यात्रा को
खूबसूरत बना देती थी उस वक्त बस से सफर
करने की खुशी भी कुछ कम नहीं थी नौकरी पर
जाना हो या कॉलेज शहर में जाने के लिए बस
एक मात्र सस्ता जरिया थी सुबह-सुबह बस
स्टैंड पर बड़ी लाइन लग जाती थी उस वक्त
तो गाय बैल को भी सड़क पर घूमने की आजादी
थी दोस्तों आजकल की शादी बारात में दूल्हा
जितनी महंगी गाड़ी में बैठता है उसका उतना
ही ज्यादा भौकाल माना जाता है लेकिन उस
वक्त के दूल्हे सजधज कर घोड़ी चढ़ते थे और
ढोल नगाड़ों के साथ बारात लेकर शादी करने
जाते थे दूले के यार दोस्तों मानो अपने
दोस्त की शादी को एक त्यौहार की तरह मानते
थे और पूरे जोश के साथ बारात में नाचक
शादी में चार चान लगा देते थे कोई ज्यादा
अमीर होता था तो कोई ढोल नगाड़ों के साथ
बैंड भी बुलाता था जिसमें बड़े से लाउड
स्पीकर लगे होते थे और बैंड वाला गायक हर
आवाज में ऐसे गाने गाता था कि बारातियों
के पैर रुकने का नाम नहीं लेते थे वहीं
कुछ लोग इन लाउड स्पीकर्स का इस्तेमाल
अपनी दुकान के प्रचार प्रसार में भी करते
थे जिसमें वो अपनी ही आवाज में कुछ
पंक्तियां कहकर उसे कैसेट में चला देते थे
खैर दोस्तों हमारा वो सुनहरा बचपन तो वापस
लौट कर नहीं आने वाला लेकिन हम अपनी यादों
को ताजा करके कुछ पल की खुशी का अनुभव
जरूर कर सकते हैं तो अब आप भी कमेंट
सेक्शन में अपने बचपन की ऐसी यादें बताइए
जिन्हें याद करके आपकी आंखों में खुशी के
आंसू आ जाते हैं